जेंडर की ज़ोरोंशोरोंसे बात 90 के दशक के शुरुवाती दौर में शुरू हुई. तब तक अगर हम देखें तो 75-85 तक विकास में महिलाएं (women in Development-WID)को देखा जा रहा था, यह वही दौर है जिसमे महिलाओं के बचे हुए समय को आयवृद्धि कार्यक्रम में जोड़कर आर्थिक विकास की प्राप्ति को गति दी जा रही थी. इसमें शक नहीं है की आर्थिक स्थिति सुधरी, शायद भोजन, कपड़ा और मकान की बुनियादी आवश्यकता तक की पहुँच कुछ हद तक बढ़ी, किन्तु महिलाओं की स्थिति जो पित्रिसत्तामक समाज में दोयम दर्जे की बनाकर रखी गयी थी, उसमे कोई सुधार या बदलाव नहीं आया. 90के दशक में बीजिंग और ICPD के अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का भी असर रहा की जेंडर को विकास से जोड़ कर देखने पर ज़ोर दिया गया और योजनाओं को जेंडर संवेदनशील दृष्टिकोण के साथ देखने की कोशिश की गयी.
मैं अगर अपने अनुभव की बात करूँ तो हमें 1997 में यह ध्यान में आया कि जहा भी जेंडर की बात की जा रही है वहाँ पर केवल महिलाओं को देखा जा रहा है, बुलाया जा रहा है, प्रशिक्षित किया जा रहा है, संवेदनशील बनाया जारहा है. इसका एक मतलब तो यह भी निकलता है कि समस्या महिलाओं में है, अपने दोयम दर्जे की स्थिति बनाये रखने के लिए महिलाएं ही जिम्मेदार हैं, इसपर प्रश्न खड़ा करने की जरूरत थी.
1997-2000 तक हमने जितने भी जेंडर प्रशिक्षण आयोजित किये या संचालित किये, सब में 90% से ज्यादा महिलाएं प्रतिभागी थीं ओर हम लोग इतने से सन्तुष्ट हो रहे थे कि चलो 10% पुरुष तो आ रहे हैं. उस दौरान जो संस्थाएं विकास के काम से जुड़ीं थीं लगभग सभी का ध्यान महिला सशक्तिकरण पर था. इस दौरान महिलाओं की भूमिका को देखा जाय तो पित्रिसत्तात्मक व्यवस्था में घर सँभालने की भूमिका ही ज्यादा रही और पुरषों की भूमिका कमा कर पैसा लाने की रही. इस कारण सभी विकास कार्यक्रमों में महिलाओं की संख्या पूर्णकालिक कार्यकर्ता की तुलना में अंशकालिक कार्यकर्ता के रूप में ज्यादा रही.
2000 के दशक को महिला हिंसा पर व्यापक स्तर पर मुद्दा उठाने के लिए भी देखा जा सकता है. इस समय काल में ही घरेलु हिंसा पर कानून बनाने की मांग ज़ोर पकड़ती जा रही थी. उ.प्र. में इस दौरान महिला सशक्तिकरण व महिला हिंसा को जब देख रहे थे तो यह समझ में आ रहा था कि लगभग सभी संस्थाएं महिला सशक्तिकरण का काम कर रही थीं. जिनमे 90% से ज्यादा संस्थाओं के मुखिया पुरुष थे. किन्तु जब महिला हिंसा की बात की जा रही थी तो यह काम केवल महिला मुखिया वाली संस्थाएं कर रही थी. इसका साफ़ मतलब यह निकलता है कि महिला सशक्तिकरण और महिला हिंसा का काम अलग अलग है.
महिला हिंसा को रोकने में पुरषों की भी भागेदारी हो सकती है इसको हम एकदम नया सोच या काम नहीं कह सकते. यह मुद्दा 18वी 19वी सदी में अलग अलग समय पर पुरषों द्वारा उठाया गया था जिसमे महिला शिक्षा की बात रही हो, सती प्रथा पर रोक रही हो, बाल विवाह पर रोक रहा हो या विधवा विवाह जैसे मुद्दे रहे हों.1993 से ‘मावा’( Men Against Violence and Abuse ) पुरषों का संगठन महिला हिंसा रोकने में पुरषों की भूमिका उठाने की बात करने लगा था. 2002 में ‘मासवा’ (Mens Action for stopping Violence Against Women) संगठन उ. प्र. में बना जिसमे पुरषों को समस्या का भाग (Part of the problem) से निराकरण का भाग ( Part of solution) बनाने की कोशिश शुरू हुई. यह समय था जब पुरुष यह भी समझने की कोशिश कर रहे थे कि हिंसा व्यव्हार का मुद्दा है या ढांचागत भेदभाव का मुद्दा है. ‘मासवा’की एक समझ यह भी बनी की हिंसा को पितृसत्ता एवं मर्दानगी के फ्रेमवर्क में देखे बगैर हिंसा को रोका नहीं जा सकता. इसका मतलब हमें हिंसा पर तुरंत विरोध का आवाज तो उठाना ही होगा साथ ही हिंसा की मूलभूत कारण को भी हल करना होगा जो ढांचागत गैरबराबरी और अलंकृत धौसपूर्ण मर्दानगी है.
2002-2003 में जब ‘मासवा’ महिला हिंसा के मुद्दे पर नारीवादी संस्थाओं के साथ मिलकर पुरुषों को को जोड़ रहा था तो कई ऐसे भी पुरुष बहस के दौरान मिल रहे थे जिनकी सोच इस आधार पर थी कि बहुत सारे पुरुष महिलाओं से पीड़ित होते हैं और पुरषों को बचाने की ज़रुरत है. इस सोच को हम आज भी हलके में नहीं ले सकते. आज भी देख सकते है कि 'सेफ इंडियन फैमिली फाउंडेशन' जैसे पुरषों का संगठन जो बहुत ही सक्रिय है और लगातार पुरषों के हितों की सुरक्षा करने की मांग करता रहा है. जब हम आज देखते हैं कि जहां महिला एवम शिशु कल्याण मंत्रालय पुरुषों के लिए एक सुनवाई खिड़की बनाने की बात करता है, या दहेज़ उत्पीड़न से जुड़े कानून को बदलने की बात करता है तो इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किस हद तक बहुत सारे पुरुष जेंडर संवेदनशील कानून को पुरषों के खिलाफ देखते है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए की काफी समय तक यह धारणा रही कि PWDVA कानून पुरुषों के खिलाफ है और इससे परिवार टूटेगा. और अभी यह धारणा पूरी तरह ख़त्म नही हो गयी है. PWDVA का शहरी क्षेत्र को छोड़ कर बाकी दायरे में न जा पाना व न लागू हो पाना इसका एक संकेतक हो सकता है.
यह बात सच है कि अगर हिंसा रहित समता मूलक समाज बनाना है तो गैरबराबरी को हटाना ही होगा, समानता तक पहुँचने का लक्ष्य रखना ही होगा. इससे कम में शायद बात नहीं बनेगी. तो क्या जिस कार्यनीति से हम महिलाओं के साथ संगठन बनाकर काम कर रहे थे वही कार्यनीति पुरषों पर भी लागू होगी? आज तक की मेरी जेंडर मुद्दे पर यात्रा के अनुभव यही बताते हैं कि पुरुषों के साथ अलग कार्यनीति (stratigies) अपनानी होगी. महिला और पुरषों के लिए लक्ष्य एक तो हो सकते है किन्तु रास्ते एक नहीं हो सकते. हासिये पर रहने वाले वर्ग जैसे महिला, दलित, ट्रांस, के लिए यह ज़रूरी है कि अपने खिलाफ हो रहे शोषण की व्यवस्था और चक्र को समझें और एक साथ एक दुसरे की मदद करते हुए लक्ष्य के तरफ आगे बढ़ें. हमें यह याद रखना होगा की जेंडर की लड़ाई घर के अन्दर अपनों से है और इयस्लिये ज्यादा कठीण है.
यह बात सच है कि पितृसत्ता में पुरषों को बहुत सारे विशेष सुविधाएँ (priviledge) मिली हैं जो उन्हें पुरुष जाति में पैदा होते ही मिल जाती है. ये सुविधाएँ तभी तक पुरुष को मिलती हैं जब तक वह पितृसत्ता द्वारा बनाई गयी व्यवस्थाओं को मानता और पोषित करता रहता है. जैसे ही कोई पुरुष पितृसत्ता के नियमों/ मानदंडो को तोड़ता है तो उसकी भी पितृसत्ता के अंतर्गत मिली सुबिधाएं बंद हो जाती हैं और उन्हें 'नामर्द' जैसे तमगो से नवाज़ा जाता है. अतः पितृसत्ता के अंतर्गत पुरषों का भी नुक्सान है, किन्तु इसे पुरषों का साथ काम का प्रवेशद्वार बनाना खतरनाक हो सकता है, फिर पुरुष भी अपने लिए और अधिकार और सुविधाएँ मागने के लिए आगे आयेंगे जो समानता पर आधारित नहीं होगा. पुरुषों के साथ जेंडर समानता के काम का प्रवेशद्वार यह हो सकता है की पुरुष अपने सत्ता और सुविधाओं ( pawer and priviledge) पर आत्मचिंतन/ रिफ्लेक्शन व विश्लेषण करें और समझें की यह न्यायोचित नहीं है. यह रास्ता इस सोच पर भी प्रश्न खड़ा करता है की बहुत सारे पुरुष ऐसे भी होते हैं जिनके पास सत्ता और सुविधाएँ नहीं होती या दुसरे पुरुषों की तुलना में काफी कम होती है, किन्तु इनकी सोच बस यही होती है कि पुरुष होने के नाते उनके पास भी सत्ता और सुविधाएँ होनी चाहिए. इसे हम सत्ता का एहसास/ सपना ( sense of entitlements) कह सकते है. यह भी उतनी ही खतरनाक है जितनी की लोग अपने सत्ता और सुविधाओं को न्यायोचित मानते हैं. इसका मतलब पुरषों द्वारा अपने सत्ता और सुविधाओं पर चिंतन और विश्लेषण और उसे बाटने की तैयारी किये बिना समानता की बात आगे नहीं बढ़ेगी.
हमारे पुरुषों के साथ जेंडर समानता के काम में यह बात हमेशा उठती रही कि कोई पुरुष बगैर फ़ायदा के क्यों जुड़ेगा? हमने सीखा की केवल ऐसे फायदे की परिकल्पना अलग अलग हो सकती है. शुरू में ज़रूर बहुत सारे पुरषों को ये लगता रहा कि अगर हम अपनी सत्ता और सुविधा को बाँटेगे तो हमारा नुकसान होगा और हम कमज़ोर होंगे. यह हमेशा सच नहीं होता, जेंडर समानता के काम में जुड़े बहुत सारे पुरुषों ने यह साझा किया कि जेंडर समानता की यात्रा में कई सारी सहूलियतें छोड़नी पड़ी किन्तु इसके बदले बहुत कुछ लाभ भी मिला जैसे – जीवन साथी के साथ ज्यादा अन्तरंग सम्बन्ध, ज्यादा विश्वास, ज्यादा संतोष, यहाँ तक की समस्याओं से संघर्ष करने के लिए ज्यादा ताकत, समानता जैसे नये सपने की ओर बढ़ते हुए देखना और सबसे ज्यादा तो तनाव का कम होना और आनंद का बढ़ना था. तो इसका मतलब समानता की यात्रा केवल नुकसान पर ही अवलंबित नहीं है, और पुरुष इससे सत्ताहीन और कमज़ोर नहीं होने वाले हैं.
हमारी जेंडर यात्रा के अनुभवों से यह दृष्टिकोण और पक्का हुआ कि जेंडर आधारित गैरबराबरी में वर्ग, जाति, धर्म, क्षेत्रियता आदि मिल कर काम करते रहते है. यूरोप का जेंडर समानता का संघर्ष केवल महिला, पुरुष और ट्रांस के बीच सेक्स और जेंडर के आधार पर चल सकता है, लेकिन दक्षिण एशिया में यह काफी जटिल है, अतः इंटरसेक्शन की जटिलता को छोड़ कर जेंडर समानता का रास्ता खोजना कम से कम दक्षिण एशिया में बेमानी होगी. हमारे कई वरिष्ठ नारीवादी दोस्तों ने काफी ईमानदारी से इसे स्वीकार किया और सार्वजानिक मंचो पर कहा की जेंडर के आधार पर हम महिलाएं अपनी सत्ताहीनता को तो देख पाती हैं किन्तु कई जगह हमें वर्ग, शिक्षा, जाति, धर्म, क्षेत्रीयता के आधार पर मिलने वाली सत्ता को हम नहीं देखपाते हैं. कई बार दलित नारीवादियो ने ये प्रश्न उठाया कि बहुत बार दलित महिला हिंसा के मुद्दों को उसी जोश और ताकत के साथ नहीं उठाया गया जितना कि अन्य वर्ग के महिला के साथ हुई हिंसा के मुद्दों को. इसका मतलब महिलाओं के साथ होने वाले जेंडर समानता के कामो में भी गैरबराबरी के अन्य कारको पर चिंतन और विश्लेषण करते रहने की ज़रुरत है.
पुरुषों के साथ जेंडर समानता के काम को लगातार विश्लेषण और रिफ्लेक्शन के अन्दर डालने की ज़रुरत होगी कि कहीं हम बदलाव (ट्रांसफारमेशन) के बजाय कल्याणकारी व सुरक्षात्मक भाव में तो नहीं जा रहे है! यह देखा गया की बहुत सारे पुरुष अच्छे व भले संवेदनशील पिता के रूप में दिखते हैं; वे अपनी बेटी की शिक्षा, आर्थिक सम्पन्नता व सुरक्षा के लिए चिंतित रहे और अपने बेटी के साथ खड़े रहते है. मगर क्या यही पिता यह मानता है कि उसकी बेटी का यह अधिकार है की वह जब और जिससे चाहे शादी करे या बगैर शादी के रहे? यह प्रश्न केवल एक भले पिता के लिए ही नहीं है बल्कि हम सभी जेंडर की वकालत करने वाले आन्दोलनकारी के लिए भी है. हम सभी लोग काफी प्रगतशील हो गए हैं, हम अपने को हर उस हासिये पर रहने वाले के साथ खड़े पाते हैं और उनके संवैधानिक अधिकारों के संघर्ष में अपनी ताकत लगाते हैं, यह हमारी वैचारिक सोच से प्रभावित पहल हो सकती है. लेकिन क्या हमारा व्यव्हार और सोच वही रहेगा जब हमारे बच्चे ट्रांस है, या बगैर शादी के यौनिक सम्बन्ध रखते हैं. हम पुरुष जो जेंडर की इतनी वकालत करते रहते हैं किस हद तक अपने अधिकारों को समानता के आधार पर बदल पाते हैं, हमें खुद को विश्लेषित करना होगा की हम जेंडर रुपी प्याज की किस परत पर हैं. क्या हम लगातार प्याज की परतों को खोलने और साझा करने के लिए हमेशा तैयार हैं?इसके लिए क्या हमारे पास समर्थन और मदद उपलब्ध है? क्या हम पुरुष दुसरे पुरुषों के साथ लगातार शेयरिंग और मदद का माहौल बना पारहे हैं? यदि नहीं तो शायद हम बौद्धिक और वैचारिक रूप से जेंडर समानता को आगे बढ़ा पाए किन्तु वास्तविक तौर पर उसे हासिल करने की तरफ नहीं बढ़ पाएंगे, क्योकि इसके लिए व्यक्तिगत को सार्वजनिक करने की ज़रुरत पड़ेगी. पुरुषों को भी अपने ‘पर्सनल को पोलिटिकल’ बनाना होगा!
सतीश कुमार सिंघ
30 साल से अधिक समय से सामाजिक न्याय के मुद्दों पर काम कर रहे हैं. इसिके साथ पुरुषत्व, कामुकता और लिंग आधारित हिंसा के मुद्दे पर काम करनेवाले SAHAYOG, SUTRA, MASVAW, FEM और MenEngage इन संघटनाओंके साथभी जुडे हैं.
satish@chsj.org
Informative as well as setting platform for public discourse.
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