बीते कुछ वर्षो के दौरान कई राज्य सरकारों ने स्थानीय निकाय मे महिलाओ की भागीदारी को और अधिक बढ़ाने के लिए 33 प्रतिशत से कहीं ज्यादा 50 प्रतिशत पद आरक्षित करने का अभूतपूर्व फैसला लिया था, इन राज्यो के इस सकारात्मक निर्णय से आगे बढ़कर पंचायत राज के दूसरे दशक की अन्तिम पारी पूरी होते-होते सरकार ने देश भर मे महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का निश्चय किया है, जिसके तहत वर्ष 2014 के पंचायत चुनाव मे अकेले म.प्र मे कुल पदों मे से आधे पद महिलाओं के लिए सुरक्षित किये गये । इन पदों मे पंच के रूप मे 180775 सरपंच के पद पर 11428 महिलाएं एवं जनपद सदस्य के रूप मे 3379 महिलाएं एवं जिला पंचायत मे 427 महिलाएं सदस्य के रूप मे नेतृत्व कर रही है। इस तरह 1,96,009 महिलाएं पंचायतराज के तीनो स्तरों पर नेतृत्व कर रही है।
तीन दशक पूर्व जब 33 प्रतिशत आरक्षण घोषित हुआ था ,उस समय सत्ता मे व्यापक स्तर पर भागीदारी करने वाली महिला प्रतिनिधियों की भूमिका के बारे मे सोचा गया था, कि आरक्षण के बहाने जब सत्ता मे महिलाओं की भागीदारी बढे़गी तो नेतृत्वकारी महिलाएं अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए निर्णय मे भागीदारी निभायेंगी और ग्रामीण विकास के काम करेगी| वे प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और निर्णय जैसे अहम् पहलू पर भी काम कर सकेंगी इसके साथ ही नेतृत्वकारी महिलाएं संगठित ताकत के बल पर महिला हिंसा के विरूद्ध खुल कर काम कर सकेंगी - जिससे आगे बढ़कर स्त्रीपुरूष गैर बराबरी का ढांचा भी ध्वस्त हो जायेगा। किन्तु कुछ उदाहरणों को छोड़कर पितृसत्ताक मानसिकता की वजह से समाज में स्वीकृति न मिलने के कारण महिला प्रतिनिधि मुखर होकर काम नही कर पा रहीं है। क्योंकि वास्तव मे इन प्रतिनिधियों को सदियों से चली आ रही परम्परा को तोड़ना कठिन साबित हो रहा है।
इन विपरीत और विषम परिस्थितियों के बावजूद आरक्षण के बलबूते सत्ता में आई कुछ नामचीन महिलाओं ने परम्परा को तोड़कर कठिन संघर्ष का रास्ता चुनते हुये ,अपने महत्व को पहचाना है। ऐसी ही कुछ सम्मानित नेत्रियों में सुखिया बाई हो या धूला रत्नम या फिर उर्मिला बाई हो या प्रभावती देवी इन्होने चुनौती स्वीकार करते हुए जान गंवा कर महिला नेतृत्व को स्थापित किया है। ऐसी ही कई स्वनामधन्य नेतृत्वकारी महिलाओं ने चरित्र पर आरोप जातिगत अपमान मारपीट हत्या, आत्महत्या, यौन हिंसा जैसी जघन्य हिंसा झेलकर नेतृत्व की कीमत चुकाई है। मगर इतने संघर्ष के बावजूद भी ये पीछे नही हटी । इन्होने महिला नेतृत्व को स्थापित किया है | ठीक 15 वर्ष पूर्व 73 वें पंचायतराज संशोधन अधिनियम के तहत् महिला आरक्षण के मुद्दे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये भूतपूर्व सरपंच रूकमणि दुबे (1965) सुधा गौर (1975) शिवकली बाई, सावित्री वर्मा (1989) ने कहा था, कि महिला आरक्षण सत्ता में महिला भागीदारी का एक सशक्त माध्यम बन सकता है। बशर्ते उन्हे अपनी यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सम्मानजनक माहौल उपलब्ध हो।
राजनैतिक साझेदारी के इस सफर मे संघर्ष झेल चुकी महिलाओं मे से कई महिलाएं ऐसी हैं ,जो पूरी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए पुनः आगे बढ़कर काम करना चाहती हैं। पंचायत मे चुनकर आई महिला प्रतिनिधियों खासकर दलित आदिवासी महिलाओं ने अपने कार्यकालों मे कई तरह के विकास कार्य किये जहां उन्हे हर कदम पर असहयोग का सामना करना पडा, वहां वे चुनौतियों को स्वीकार कर कई महत्वपूर्ण काम कर पाई। ऐसे ही कुछ उदाहरण हमारे सामने मौजूद है। सीधि जिले के चैफाल पवई की आदिवासी महिला सरपंच रामरती बाई ने गांव वालों को साथ लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली मे पिछले कई वर्षो से चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई एवं ठेकेदार जो ब्लैक मे राशन का सामान बाहर से बेचता था ,उसे सजा दिलवाई| दो सवर्ण उम्मीदवारों को चुनौति देकर चयनित हुई सागर जिले के पथरिया पंचायत की दलित सरपंच फूलबाई ने पुलिस के भ्रष्टाचार का प्रकरण उजागर किया अन्ततः पुलिस को उनके पैसे और अनाज वापिस करना पडे़ । उन पर जानलेवा हमला भी हुआ। बीड़ी बनाकर जीवकोपार्जन करने वाली फूलबाई को जब उत्कृष्ट कार्य के लिए एक राष्ट्रीय अखबार द्वारा 1100 रू का बजीफा चेक के रूप मे मिला तो उसे वे कॅश नही करा पाई कारण था ,उनके नाम से कोई बैक खाता न होना फूलबाई के मुताबिक कभी हमारे पास इतना पैसा ही नहीं रहा कि बैक खाता खुलवा सके। मण्डला जिले के खापा पंचायत की सरपंच शिवकली बाई ने चैथी बार सत्ता संभालते हुए गांव मे कई विकास के काम किये बरगी बांध से विस्थापित शिवकली बाई गिटटी तोड़ने की मजदूरी करती थी, उसी दौरान वे सरपंच बनी। मंदसौर जिले के रणायरा ग्राम पंचायत की सरपंच जसौदा बाई ने नवीन पंचायत का गठन करवाया दरअसल यहां के दो गांव से पंचायत कार्यालय की दूरी अधिक होने के कारण महिलाएं मीटिंग मे भाग नही ले पाती थी, जिससे महिलाओं ने संगठित होकर नई पंचायत बनाने की मांग की ,महिलाओं की संमस्या देखते हुए यहां नवीन पंचायत का गठन किया गया। प्रथम चरण मे चयनित हुई प्रतिनिधियों के हालात जानने के लिए एकत्र संस्था द्वारा किये गये अध्ययन के दौरान होषंगाबाद जिले के रैसलपुर पंचायत की भूतपूर्व सरपंच उषा पटेल ने अपने अनुभव मे बताया था कि अब मुझे पता चला है ,कि गांव की किस दिषा में हमारा घर है ,स्कूल, और आंगनवाड़ी कहां है ? पहले जब मैं मायके से आती या जाती थी, तो बंद बैलगाड़ी में घूंघट कर यात्रा करती थी ,चुनाव के बहाने मुझे गांव के बारे मे ये जानने का मौका मिला।
पंचायत राज में महिलाओ ने आपणे पद का उपयोग करते हुए वजूद बनाने की कोशिश की तो उन्हे कई तरीकोंसे प्रताडीत किया गया| जैसे-जैसे नेतृत्व मे महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है , वैसे-वैसे हिंसा की वारदाते भी बढ़ रही है, पंचायत चुनाव के दौरान मिर्जापुर उत्तरप्रदेश की दलित महिला प्रत्याषी प्रभावती देवी ने दंबग लोगों की इच्छा के विरूद्ध चुनाव लडने का तय किया था ,उनका कसूर सिर्फ इतना था ,कि वे गांव के प्रमुख लोगो के समझाने के बावजूद भी चुनाव मैदान से नही हटी। इस बात की सजा उन्हे जान देकर गवानी पड़ी और चुनाव के दौरान चुनावी रंजिश के चलते उन्हे जिंदा जला दिया गया। इसी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते हुये जान गंवा चुकी म.प्र. के बैतूल जिले के गुबरैल ग्राम पंचायत की आदिवासी सरपंच सुखिया बाई कर्मठ और ईमानदार नेता थी, वे गांव में वास्तविक विकास करना चाहती थी, किन्तु इसके एवज मे उनसे पांच हजार रू. भ्रष्टाचार के रूप मे मांगे जा रहे थे, काफी समझाईश और संघर्ष के बाद जब समझौता नही हुआ तो अंततः सुखिया बाई ने निराश होकर मिट्टी का तेल डालकर आत्मदाह कर लिया।
जबकि 50 प्रतिशत आरक्षित पदो के अलावा बांकि के पद सामान्य माने जाते है, जिन पर महिलाएं भी चुनाव लड़ सकती हैं, किन्तु चुनाव के दौरान प्रचारित यह किया जाता है ,कि अमुख पद पुरूष के लिये आरक्षित है। जिससे उस पद पर चुनाव लडने की इक्छुक महिलाएं आगे नही आ पाती । परम्परागत भूमिका से हट कर नेतृत्व मे आगे आ रही इन महिलाओं को निराश करने और इनका मनोबल गिराने का सबसे सरल और कारगर हथियार है ,उन पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाना। इस तरह के मनगढंत आरोपांे के कारण महिलाएं हताश हो जाती है, और मुखर होकर भूमिका निभाने से डरती हैं। पंचायत राज मे यौन हिंसा का का ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है |पिछले कार्यकाल में छतरपुर के महोईकला ग्राम पंचायत की सरपंच रही इंदिरा कुशवाह को लोगों ने पहले डराया धमकाया, एवं विकास कार्य के लिए आई राषि मे से पैसे देने का दबाब डाला यह दबाब स्वीकार न करने पर उन्हे निर्वस्त्र कर गांव मे घुमाते हुए उनकी पिटाई की। शिवपुरी के सिनावतकला की दलित महिला सरपंच के साथ गांव के कुछ प्रभावषाली व्यक्तियों ने सामूहिक बलात्कार किया। धार जिले के नालक्षा ग्रामपंचायत की दलित सरपंच शांति बाई टीकमगढ़ के पीपराबिलारी पंचायत की सरपंच गुंदीया बाई को दलित होने के कारण गांव के प्रभावषाली लोगो ने झंडा नही फहराने दिया यह सलूक गांव मे सरपंच के साथ ही नही हुआ, बल्कि होषंगाबाद जिले की जिला पंचायत अध्यक्ष उमा आरसे के साथ भी घटित हुआ। किन्तु उन्होने हार नही मानी और गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराया।
महिला नेतृत्व के साथ-साथ अब घरेलू हिंसा के मामले भी बढ़ते जा रहे हैं । नेतृत्व के लिये जब महिलाएं अपने स्वयं की सीमाओं और संकोच को तोड़कर बाहर निकलने की कोषिश करती हैं ,तो उन्हे घर के अतिरिक्त काम करना पड़ता है जैसे घर संभालना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना, मजदूरी और खेती के काम करना आदि। इस वजह से वे समय पर कार्यक्रम या मीटिंग मे नही पहुंच पाती ,जिससे सार्वजनिक रूप से उनका सम्मान कम हो जाता है और उनके प्रति वे भरोसे की भावना भी बनती है । हिंसा के स्वरूप मे जातिगत संबोधन भी एक जघन्य हिंसा का रूप है। ऐसे संबोधनों के कारण वे अपमानित महसूस करती है और सार्वजनिक जीवन मे आगे आकर काम करने का साहस नही जुटा पाती। इसी तरह धारा 40 के कानून का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल महिला प्रतिनिधियों के खिलाफ हुआ। धारा 40 के तहत की गई हिंसा के अलावा दो बच्चों के कानून की गाज भी महिलाओं पर ही गिरी। कई राज्यों मे अभी भी यह कानून लागू है जिससे कई महिला प्रतिनिधियों को गांव के समुचित विकास और अद्वितीय काम करने के बावजूद भी पद से हाथ धोना पड़ा और अब घर की चार दीवारी मे कैद होना पड़ रहा है| जहां हमारे समाज मे प्रजनन जैसे अहम मसले पर महिलाओं के निर्णय को महत्व नही दिया जाता उन्हे कब और कितने बच्चे पैदा करना है, परिवार द्वारा संतान के रूप में पुत्र की कामना ही पुत्र पैदा करने पर जोर डालती हैं ,इस स्थिति मे सीमित परिवार के कानून से उन्हे लगातार हिंसा का सामना करना पड़ा। मध्यप्रदेश मे 26 जनवरी 2001 से उक्त कानून लागू हुआ । दो बच्चो के कानून का जन प्रतिनिधियों पर असर विशय पर समा संस्था दिल्ली के नेतृत्व मे तराषी संस्था म.प्र. की टीम द्वारा म.प्र. के 12 जिलो मे अध्ययन किया गया। जिसमे सामान्य वर्ग की 12 प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग की 38 प्रतिशत एवं 50 प्रतिशत दलित आदिवासी महिलाएं प्रभावित हुई हैं। इसमे ज्यादातर महिलाएं प्रजनन काल का सबसे महत्वपूर्ण समय 25 से 40 के आयुवर्ग की हैं। दो बच्चों के कानून के कारण जहां पुरूष प्रतिनिधि प्रभावित हुये है ,वहां भी हिंसा का सामना उनकी पत्नी को ही करना पड़ा। इन महिलाओं पर चरित्र के आरोप लगने, तलाक देने, बच्चे को स्वीकार न करने जैसे संदेहास्पद आरोपो का सामना करना पड़ा उससे आगे बढ़ कर प्रतिनिधियों ने पद बचाने की खातिर गर्भपात खासकर कन्याभ्रूण हत्या ,अनचाहे आपरेशन बच्चा गोद देने और बच्चे की हत्या करने एवं मारपीट करने जैसी हिंसा से भी गुजरना पडा| इन प्रतिनिधियों ने अपने बचाव मे कई रास्ते अख्तियार किये कई प्रतिनिधियों ने न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। अध्ययन से निकले तथ्यों के आधार पर सामाजिक एंव स्वास्थय संगठनों द्वारा कानून को रदद करने के लिए एक देश व्यापी अभियान चलाया गया जिसके तहत न्यायालय मे याचिका लगाई गई, अन्ततः अभियान का असर ये हुआ कि मध्यप्रदेश सरकार को कानून रदद् करना पड़ा।
पंचायत राज के इस तीन दशक के दौरान संघर्ष झेल चुकी अनेकों महिलाएं ऐसी हैं, जो पूरी चुनौतीयों को स्वीकार करते हुये पुनः सत्ता संभालना चाहती है | इतनी चुनौतियों के बावजूद भी कई महिला प्रतिनिधि देश मे उदाहरण बन गई हैं, जिन्होने सामाजिक बुराईयों को दूर करने शिक्षा का प्रसार करने के साथ ही भ्रष्टाचार मिटाने, अतिक्रमण दूर करने नई पंचायत का गठन करने जैसे जटिल गंभीर काम तक कर दिखाए। इतने व्यापक स्तर पर नेतृत्व मे आई इन महिलाओं के बारे मे सोचा गया था ,कि वे अपनी संगठित ताकत के बल पर महिला हिंसा के खिलाफ खुलकर काम कर सकेंगी। किन्तु चर्चा के दौरान सरपंच उषा कबड़े ने बताया, कि वास्तव में हम सब पंचायत के काम-काज में इतना उलझ गये हैं ,कि महिलाओं पर हो रही हिंसा के खिलाफ कोई कदम नही उठा पाते। परम्परा से पुरूषों के हाथ मे रहा नेतृत्व जैसे-जैसे महिलाओं के हाथ मे आ रहा है, वैसे-वैसे नेतृत्व के मायने भी बदल रहे हैं। नेतृत्वकारी महिलाएं रचनात्मक काम के साथ ही नेतृत्व को स्वीकार करने और आत्मसात करने की कोशिश कर रही हैं, बशर्ते कि उन्हे समुचित माहौल उपलब्ध हो।
नीती दिवाण
गेली वीस वर्षं पंचायतीतील महिला नेतृत्वासोबत काम तसेच त्याबद्दल प्रशिक्षण देतात, 'नई दुनिया', 'जन सत्ता' सारख्या वृत्तपत्रांमध्ये लेख, तसेच 'हमारी कोशीशे' आणि 'संघर्ष की कथा' ही पुस्तके प्रकाशित. पत्रकारितेसाठी 'उदयन शर्मा फाउंडेशन ट्रस्ट'चा राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त. सध्या 'तराशी रिसर्च ओर्गनायझेशन' मध्ये समन्वयक म्हणून काम करतात.
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