साधारणत: जोक्स उस समुदाय, जाति या वर्ग पर अधिक निर्मित होते रहे हैं जो पावर (सत्ता) में रहे हैं। लतीफों के अतीत को देखें तो हमें पता चलता है कि पहले जो भी लतीफे बनाए जाते थे उसमें सत्ता-संरचना का मखौल उड़ाया जाता था है। अधिकांश लतीफे धनाढ्यों के कंजूसी, मक्कारी, बादशाहों, नबाबों के मूर्खतापूर्ण निर्णय,अंग्रेजों के शासन काल में आम जनता की बेहाली और कड़े कानून का मखौल उड़ाते चुटीले लतीफे हमें देखने को मिलते हैं। लतीफों के केंद्र में स्त्री नहीं थी, लेकिन वर्तमान समय में लतीफों के केंद्र में स्त्री है। स्त्री का वह रूप जिसमें वह पत्नी है, सास है या गर्लफ्रेंड है। इस तरह के लतीफों में किसी भी तरह से स्त्री का मखौल उड़ाना ही जोक्स के प्रचलित होने का एक मुहावरा बन गया है। स्टैंडअप कॉमेडी में भी महिलाओं का ही अधिक मज़ाक उड़ाया जाता है।
वर्तमान समय के लतीफों में स्त्री को मूर्ख, जाहिल, झूठा, फैशनपरस्त, किसी से कोई संबंध न रखने वाली, अपने आप को सबसे सुंदर और बुद्धिमान समझने वाली,पार्टी करने वाली, देर रात घर आने वाली, पतियों को गुलाम बना कर रखने वाली, अपने मायके की प्रशंसा करने वाली व ससुराल को हेय दृष्टि से देखने वाली,एकल परिवार की हिमायती एवं वैवाहिक सम्बन्धों से ऊब चुकी स्त्री को अधिक चित्रित किया जाता है। कामकाजी महिलाओं की अवहेलना व उनके श्रम को श्रम न समझना भी लतीफों में बहुत ही प्रमुखता से शामिल किया जाता है। स्त्री के जीवन में जो चीजें उसे सशक्त बना रही हैं लतीफों में उन्हीं चीजों का मज़ाक बनाया जाता है। बदलते समय में जब स्त्री-पुरुष दोनों कामकाजी हैं, तो एकल परिवारों में जिम्मेदारियों का निर्वहन भी दोनों मिलकर करते हैं। पुरुषों का खाना बनाना, घर का काम करना, पत्नी के साथ कहीं घूमने जाना व कुछ ऐसे गुण जिसे पुरुषों का ताकत माना जाता है का अभाव जैसे कि अधिक बलशाली न होना, मृदुभाषी होना, क्रोध न करना आदि गुण पुरुषीयता (Masculinity) के कमजोर होने की ओर संकेत करते हैं। ऐसे गुणों से युक्त पुरुषों को भी केंद्र में रखकर जोक्स बनाए जाते हैं। लतीफों में ऐसे विचार अधिक शामिल होते हैं जो पुरुष करते ही नहीं हैं, बल्कि फन्तासी(fantasy) में उन्हें लगता है कि पुरुष स्त्रियों से प्रताड़ित हो रहा है।[1]
यौनिक हास्य बोध एवं लतीफे
वर्तमान समय में यौनिकता से संबंधित लतीफों का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। ये ऐसे लतीफे हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाता , बल्कि इस तरह के लतीफों का लुत्फ उठाया जाता है। सेक्स से संबंधित जोक्स के संदर्भ में क्रिस्टी डेविस (Christie Davies) अपनी किताब ‘Jokes and Targets’ में कहते हैं कि मूर्खता से संबंधित जोक्स सर्वाधिक प्रचलन में रहते हैं, लेकिन सेक्स से सबंधित जोक्स उससे भी अधिक प्रचलित हैं। और ऐसे हास्य केवल जोक्स तक सीमित नहीं है, बल्कि हास्य के अन्य माध्यमों व कॉमेडी तक में सेक्स बोध अधिक परिलक्षित होता है।[2] यौनिकता से संबन्धित जोक्स पुरुष द्वारा स्त्रियों को लक्षित करके सुनाया जाता है और जोक्स में उनका वस्तुकरण किया जाता है। सेक्सुअल जोक्स प्रत्यक्ष रूप से अश्लील,द्विअर्थी (Dual meaning) युक्त होते हैं। इस तरह के जोक्स को बिना किसी लाग लपेट के स्त्रियों के बीच में पुरुषों द्वारा सुनाया जाता है और उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे भी इस तरह के जोक्स पर पुरुषों की तरह ही हँसे। उदाहरण के तौर पर ये एक लतिफा देखीये -
कॉलेज वाली...
मसालेदार होती है.
पड़ोस वाली...
कड़क होती है.
ऑफिस वाली...
मीठी होती है
घर वाली...
फीकी होती है..
होटल वाली...
मस्त होती है...
5स्टार वाली...
महंगी होती है.
लेकिन एक बात है यार... .
चाय आखिर चाय होती है।
पता नहीं क्या-क्या सोचते रहते हो...
सोच बदलो तो देश बदलेगा
अकेला मोदी क्या क्या बदलेगा
सेक्सिस्ट जोक्स में स्त्रियों को यौनिक वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस तरह के जोक्स में स्त्री एक ऑब्जेक्ट की तरह होती है। सेक्सुअल जोक्स पुरुषों के यौन कुंठा को और तीव्र करता है जो पुरुषों को मनोरंजक भी लगता है। सेक्सिस्ट जोक्स के संदर्भ में लिमोर सिफमान (Limor Shifman) और डाफना लेमिश (Dafna Lemish) ने अपने एक आलेख ‘Between Feminism and Fun(ny)mism: Analyzing Gender in Popular Internet Humour’ में इसका वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि - सेक्सिस्ट जोक्स के दो प्रकार के होते हैं- सामान्य और विशेष सामान्य, जोक्स के अंतर्गत महिलाओं पर सीधे प्रहार किया जाता है, जबकि विशेष प्रकार के जोक्स महिला समूहों का मजाक बनाते हैं और स्त्री के परंपरागत व रूढ़िवादी छवि को अतिश्योक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं।[3]
सेक्सिस्ट जोक्स का जो पहला प्रकार है उसमें सामान्यत: स्त्रियों पर सीधे प्रहार किया जाता है और इस तरह के जोक्स के केंद्र में कोई खास या विशेष स्त्री नहीं होती और न ही कोई विशेष समुदाय, बल्कि पितृसत्ता इस तरह के पूरी स्त्री जाति को एक ही तरह से देखता है–सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में। विशेष प्रकार का जो समूह है उस पर केन्द्रित जो भी जोक्स होते हैं उसमें किसी खास समुदाय, जाति, वर्ग को लक्षित किया जाता है। इस तरह के जोक्स में स्त्री द्वेष तो स्पष्ट दिखता है, लेकिन इसके साथ ही व्यक्ति विशेष, जाति, वर्ग, धर्म, स्थान, समुदाय, समूह का भी द्वेष दिखता है। अपने देश में इस तरह के जोक्स का निर्माण मुस्लिम महिलाओं को केंद्र में रखकर अधिक किया जाता है। यानि कि एक खास धर्म की स्त्रियों की यौनिकता पर सवाल खड़ा किया जाता है। चूंकि मुस्लिम धर्म में पारिवारिक संबंधों में (आपसी संबंधों में विवाह, जैसे-चचेरे, ममेरे, फूफेरे, मौसेरे भाई-बहनों की शादियाँ) विवाह की परंपरा है इस कारण मुस्लिम स्त्रियों की यौनिकता से संबंधित जोक्स भी दूसरे समुदाय या धर्म में खूब प्रचलित हैं। इस तरह के जोक्स एक समुदाय, जाति,वर्ग एवं धर्म विशेष की स्त्रियों को नीचा दिखाने के लिए प्रयोग किये जाते हैं।
लड़की दुपट्टा मुँह पे लपेटे हुए स्कूटी से जा रही थी
पास से असलम मियां बाइक से जाते हुए
बोला, "जानेमन, ज़रा मुखड़ा तो दिखाती जाओ.......
"लड़की: "अब्बु ,मैं हूँ! सलमा
(यहाँ यौन संबंधों से संबंधित जोक्स का सीधे उदाहरण नहीं दिया जा रहा है। इस तरह के जोक्स इतने अश्लील होते हैं कि उसका सीधा उदाहरण नहीं दिया जा सकता)
खास समूहों-जैसे कॉल सेंटर में जॉब करने वाली लड़कियों, नर्सों, ननों को भी केंद्र में रखकर सेक्सिस्ट जोक्स बनाए जाते हैं और इसमें भी यौन संबंधों पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। महिला राजनेताओं और सेलिब्रिटी पर भी सेक्सिस्ट जोक्स खूब बनाए जाते हैं। अविवाहित महिला राजनीतिज्ञ पर इस तरह के जोक्स सर्वाधिक बनाए जाते हैं। हाल-फिलहाल में भारतीय क्रिकेट टीम के पराजित होने पर जो जोक्स बने उसमें विराट कोहली एवं टीम के अन्य सदस्यों को टारगेट नहीं किया गया,बल्कि जोक्स में अनुष्का शर्मा को टारगेट किया गया और उसमें भी अनुष्का के सेक्सुअल संबंधों को।
यौनिकता से संबंधित जोक्स में स्त्री की जो छवि गढ़ी जाती है उसे परम्परागत व रूढ़िवादी छवि के साथ अतिशयोक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पुरुष अपनी यौन-कुंठा को जोक्स/हास्य का नाम देकर प्रस्तुत करता है। पुरुष यौनिक हास्य की इस परिणिति में यह भी आरोप लगाता है कि स्त्रियों के पास ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ नहीं होता इसलिए वे एक सहज मज़ाक को भी नहीं समझ पाती हैं।
बौद्धिकता, स्त्री श्रम और लतीफे
हमारे समाज में स्त्री को बौद्धिक मानने की कोई परंपरा नहीं रही है। इसलिए जन मानस का कोई अभ्यास स्त्री की बौद्धिकता को लेकर नहीं है। और न ही उसे स्त्री की बौद्धिकता स्वीकार्य है। ज्ञान की दुनिया में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है और यदि वह इस तरह की दुनिया में प्रवेश पा भी जाती है तो उसे मूर्ख, जाहिल, गंवार साबित करने की होड़ सी मची रहती है। स्त्रियों को बार-बार यह बताया जाता है कि उनका काम घर की चारदीवारी तक सीमित है। बच्चों का पालन-पोषण, पति की सेवा में समर्पित एवं घर के बड़े-बूढ़ों की सेवा करना ही उसका धर्म है। जबकि तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं, सीबीएसई और अन्य राज्यों के दसवीं, बारहवीं की परीक्षाओं में भी लड़कियां ही अव्वल रहती आई हैं, तो जाहिर है ऐसे में उनकी स्थिति पहले से बेहतर हुई है। ज्ञान-विज्ञान का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां स्त्रियां अपनी उपस्थिति दर्ज ना करा रही हों। लेकिन जोक्स में ठीक इसके विपरीत है। वहाँ स्त्रियों को सर्वाधिक मूर्ख साबित करने की होड़ मची है।
इस तरह के जोक्स स्त्रियों को मूर्ख, अज्ञानी एवं गंवार साबित करने के लिए बनाए जाते हैं और पितृसत्तात्मक विचारधारा यह साबित करती है कि स्त्रियां कितनी भी पढ़-लिख लें, वह रहेंगी निरी मूर्ख ही, वह पुरुषों की तरह बुद्धिमान नहीं हो सकती हैं। इसमें पुरुषों का अपना अहंकार है और इस बात का उन्हें आभास है कि जो उन्होंने अपनी वर्चस्व की सत्ता का निर्माण किया है कहीं धराशाई न हो जाय।
लड़की: ये टीवी कितने का है?
दुकानदार : 50,000/- रू.
लड़की: इतना महंगा? ऐसा क्या खास है?
दुकानदार : ये लाईट जाने के बाद AUTOMATIC बंद हो जाता है
लड़की: ओह फिर तो पैक कर दो
पितृसत्तात्मक समाज जहां जितना मजबूत होगा वहाँ उतना ही अधिक लतीफे स्त्री द्वेषी होंगे। पेशागत जोक्स भी महिला डॉक्टर, महिला अध्यापक, महिला नर्स और अन्य क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं पर उसी क्षेत्र में काम करने वाले पुरुषों की अपेक्षा अधिक जोक्स बनाए जाते हैं और उन्हें बेअक्ल, दिमाग का कम और बातूनी साबित किया जाता है। कॉनवेंट में पढ़ने वाली लड़कियों पर भी खूब जोक्स बनाए जाते हैं, उन्हें मूर्ख एवं सामाजिक जीवन से अनभिज्ञ साबित करने का प्रयास किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि स्त्री यदि अधिक पढ़-लिख जाय और पितृसत्ता के उस दायरे का अतिक्रमण कर ले जिसे पुरुष अभी तक अपना समझता रहा है तो वह पुरुषों को नागवार गुजरता है और ऐसे में वह स्त्री का मखौल उड़ाता है, और पुरुष को बेचारा साबित करता है। पितृसत्ता यह मानकर चलती है कि स्त्री बुद्धिमान नहीं हो सकती, उसके पास दिमाग नहीं होता और यदि होता भी है तो घुटने में होता है।
स्त्री श्रम और जोक्स-
स्त्री श्रम के बारे में पितृसत्ता वही ख्याल रखता है जो स्त्री की बुद्धिमत्ता और ज्ञान के बारे में रखता है। पूरे श्रम का 60 प्रतिशत श्रम स्त्रियां करती हैं। स्त्री के इस श्रम का कोई मूल्यांकन एवं मूल्य नहीं है। घरेलू श्रम में एक स्त्री की शुरूआत सुबह से पहले होती है। पूरे घर का खाना बनाना, घर से बाहर जाने वालों के लिए टिफिन तैयार करना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, घर की सफाई करना, घर के बुजुर्गों की देखभाल करना, शाम के खाने की तैयारी व इसके बाद पति की सेवा करना ये कुछ सामान्य कार्य हैं जो हर एक स्त्री को करना पड़ते है । इसके लिए ना तो उन्हे कोई मूल्य मिलता है और ना ही इस तरह के कामों को काम माना जाता है। स्त्री श्रम को श्रम न मानते हुए उसका मज़ाक बनाना पितृसत्तात्मक व्यवस्था में आम चलन में है ।
बीवियों का काम ही समझ नहीं आता
पता नहीं क्या दुश्मनी है पतियों से!
गर्मियों में तो झाड़ू मारने के लिए पंखा बंद कर देती हैं
और अब सर्दियों में पोछा सुखाने के लिए पंखा चला देती है
स्त्री श्रम की अवहेलना केवल घर के भीतर ही नहीं है बल्कि सामाजिक संरचना में इस कदर धंसा हुआ है कि एनसीईआरटी की किताबों में भी स्त्री श्रम को उपेक्षा के नजरिए से देखा जाता रहा है।
टीचर- 1औरत 1घंटे मे 50 रोटी बनाती है तो 3 औरते 1घंटे मे कितनी रोटी बनायेगी?
बच्चा- एक भी नही, क्योंकि अकेली है इसलिए काम कर रही है
तीनों मिलकर सिर्फ पंचायत करेंगी !
स्त्री के अधिक बात करने के संदर्भ में अनेक जोक्स गढ़े जाते हैं जिसे आजकल स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर खूब परोसा जाता है। महिला कॉमेडियन भी हास्य उत्पन्न करने के लिए स्त्री श्रम की अवहेलना करती हैं। स्त्रियों के ऐसे श्रम जिसका कोई मूल्य नहीं है उसे जोक्स में आसानी से शामिल कर लिया जाता है और उसे इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि लगे स्त्री कोई काम ही नहीं करती केवल काम का बोझ ढोती रहती है, सारा काम तो पुरुष (पति) ही करता है।
वैवाहिक जीवन और जोक्स
विवाह से संबंधित जोक्स में भी इस पर ज़ोर रहता है कि पुरुष विवाह करके फंस गया है, उसका सब कुछ छिन गया है, उसकी आजादी चली गई है, वह बेचारा हो गया है,जबकि होता इसके उलटा है। विवाह के बाद एक स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह जाता है, उसका सब कुछ छूट जाता है,अपना घर, माँ-पिता, दोस्त, पढ़ाई-लिखाई और यहाँ तक की कुछ स्त्रियों का जॉब भी, उसे आगे का जीवन व्यतीत करने के लिए फिर से एक नए परिवेश में खुद को ढालना पड़ता है। लेकिन जोक्स में इसे इस तरह से व्यक्त किया जाता है कि विवाह के बाद पुरुष का जीवन नरकीय हो गया है और उसे बहुत अधिक परेशानी झेलनी पड़ रही है।
निबंध लिखो
मैं पति क्यों बना....? (20 मार्क्स)
Ans. :- चर्बी चढ़ी थी... (20/20)
विवाह संबंधी लतीफ़ों में कभी भी यह नहीं होता है कि पत्नी प्रताड़ित है। उसका जीवन नरकीय हो गया है, उसका सब कुछ छूट गया है, उसकी आजादी छिन गई है, उसे ही घर के सारे काम करने पड़ते हैं, बच्चों का पालन-पोषण भी करना पडता है । लेकिन जोक्स में सबसे अधिक परेशान पति को ही दिखाया जाता है। ऐसा जान पड़ता है कि घर की सारी जिम्मेदारियाँ पति ही अपने कंधे पर उठाए रहता है।
दुनियादारी का फर्क तब समझ में आया
जब एक कुंवारे के दरवाज़े पर लिखा देखा-
" Sweet Home"
और
शादी-शुदा के दरवाजे पे
"ॐ शांति ॐ"
पत्नी से छुटकारा पाने, पत्नी के मर जाने पर आदमी के खुश होने के संबंध में भी खूब जोक्स प्रचलित है। सोशल मीडिया के आने के बाद इस तरह के लतीफों का प्रचलन तेजी से हुआ है। पत्नियों के मायके जाने पर पति के खुश होने से संबंधित जोक्स की भरमार है। एक लतीफे में एक आदमी गाड़ी तेज चलाने के जुर्म में पकड़ा गया, जज साहब को बताया गया कि वह पत्नी को लेने ससुराल जा रहा था। यह उसको निर्दोष साबित करने के लिए काफी था, क्योंकि यदि वह पत्नी को लेने मायके जा रहा था तो गाड़ी तेज चला ही नहीं सकता था। उसे पत्नी को घर लाने की जल्दी हो ही नहीं सकती थी।
एक शादी शुदा आदमी से पूछा गया सवाल...
"यदि आपकी सास और आप की पत्नी एक साथ बाघ के पिंजरे में गिर जाएं
तो आप किसे बचाएंगे...??"
वो आदमी जोर से हंसा... हंसते-हंसते लोटपोट हो गया और बोला...
"यह भी कोई पूछने की बात है...??
मैं यकीनन बाघ को बचाऊँगा... आखिर दुनिया में बाघ बचे ही कितने हैं..."
पत्नी और सास की तुलना बाघ से की गई है। यानि पत्नी व सास बाघ से भी खूंखार एवं हिंसक है,जिससे पुरुष बचना चाह रहा है। यहाँ पत्नी और सास के बदले जिस तरह से बाघ को बचाने की बात है वह पूरी तरह से पत्नी व सास के अस्तित्व पर प्रहार है। इस तरह के जोक्स के माध्यम से पत्नी और सास की अवहेलना करना और यह साबित करना है कि पुरुष पत्नी और सास से बहुत प्रताड़ित है। जबकि पूरी सामाजिक संरचना में ऐसी स्थिति नहीं है। वैवाहिक जीवन का निर्वहन पति और पत्नी दोनों पर है लेकिन लतीफों में इसे इस तरह अभिव्यक्त किया जाता है जिससे यह लगे कि पत्नी पति का बहुत अधिक शोषण करती है और इस शोषण में सास भी अपनी भूमिका निभाती है। बेचारा पति, पत्नी के सामने बेबस, लाचार एवं दयनीय बना रहता है। ऐसे में वह एक जीव की रक्षा करेगा जिसकी संख्या घटती जा रही है यहा जो भाव है वह बताता है कि स्त्री (पत्नी) को किस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है।
पत्नी के बाद गर्लफ्रेंड पर जो जोक्स बनते हैं उसमें जो कंटेन्ट होता है वह भी पूरी तरह से स्त्री विरोधी होता है। दोस्ती की प्राथमिक समझ को भी नजरंदाज किया जाता है। लड़की को चालाक, धूर्त, पैसा ऐंठने वाली, दूसरे की संपत्ति पर सुख भोगने वाली, कभी भी सच न बोलने वाली, अपने आगे किसी की न सुनने वाली के रूप में दिखाया जाता है, जबकि लड़को को लड़कियों की दोस्ती के लिए सब कुछ छोड़ देने (घर-परिवार एवं दोस्त) पढ़ाई का छूट जाने , परीक्षाओं में फेल होना आदि दिखाया जाता है।
लड़का- कहां हो?
लड़की- अभी तो मैं अपने पापा की बी.एम. डब्ल्यू. कार से मार्केट जा रही हूँ, फिर शापिंग माल, और फिर कपड़े और ज्वेलरी खरीदूंगी फिर मिलेंगे।
तुम कहां हो?
लड़का--तू जिस बस में बैठी है ना उसी में पीछे लटका हूँ, किराया मत देना मैंने दे दिया है।
इस तरह के लतीफों के माध्यम से पितृसत्तात्मक विचारधारा यह बताने का प्रयास करता है कि लड़कियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए, वह किस हद तक झूठी होती हैं। अपने स्टेट्स के लिए झूठी कहानियाँ गढ़ती है, प्रेम का झूठा राग अलापती हैं और अपने सामने किसी को कुछ भी नहीं समझती हैं।
बदलता जीवन रूप और लतीफे-
एक पत्नी ने अपने पति को कॉल लगाया और
पूछा-“क्या कर रहे हो ?”
पति-“ऑफिस में हूँ …
बहुत बिजी हूँ … !
और तुम
क्या कर रही हो….?”
पत्नी – मैकडोनाल्ड रेस्तरां में तुम्हारे पीछे
बच्चों के साथ बैठी हूं
और बच्चे पूछ रहे हैं
कि पापा के साथ कौन-सी बुआ बैठी है…?
एक बंद समाज में विवाहेत्तर संबंध (extramarital affair) को लेकर भी लतीफों का खूब प्रचलन होता है। हमारा समाज एक संबंधों को लेकर एक बंद समाज रहा है। उदारीकरण के बाद आर्थिक संरचना में जो बदलाव हुए उसके एवज में सामाजिक संरचना में बदलाव हुआ और इसी बदलाव में विवाहेत्तर संबंधों की भी शुरूआत होती है। ऐसा नहीं है कि विवाहेत्तर संबंध कोई नई परिघटना है या इसके पहले इस तरह का कोई संबंध नहीं होता था।
पप्पू की शादी हो गई और उनका वैवाहिक जीवन शुरु हो गया
एक बार पप्पू ने अपनी पत्नी से पूछा,
तुमने मुझमें ऐसा क्या देखा कि शादी के लिए तैयार हो गई।
पप्पू की पत्नी: मैने एक-दो बार आपको बर्तन मांजते हुए देखा था।
इस तरह के ज्यादातर जोक्स ऐसे पुरुषों पर बनाये जाते हैं जो अपनी मैस्कुलिनटी (Masculinity) को तोड़ रहे होते हैं या जिनके अंदर स्त्रैण गुण होता है। जोक्स में उन्हें ऐसे दिखाया जाता है जैसे वे सारे घरेलू काम करते हों। यानि कि महिलाओं के लिए तय कर दिए गए काम जैसे-खाना बनाना, कपड़े धोना, बर्तन धोना आदि। इस तरह के जोक्स में पुरुष ही पात्र होते हैं और ही एक दूसरे को सुना रहे होते हैं। चूँकि इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में बहुमत ऐसे लोगों का है जो इस तरह का काम करना अपनी तौहीन समझते हैं, इसलिए वे ऐसे पुरुषों को अपने मजाक का निशाना बनाते हैं।
लतीफों में स्त्रियों को अतिशय फैशनपरस्त दिखाने की भी परंपरा है। फैशन का संबंध बाजारवाद और पितृसत्ता के आपसी संबंध पर निर्भर करता है लेकिन आरोप एक तरफा स्त्री पर लगाया जाता है । फैशन का जो बाजार है वह अब अपने दूसरे चरण में पुरुषों को सुंदर बनाने निकला है लेकिन पुरुषों की फैशनपरस्ती को लेकर कोई जोक्स नहीं मिलता, उनका कोई मज़ाक नहीं बनाया जाता है, जबकि स्त्रियों को इसका सीधे-सीधे निशाना बनाया जाता है।
वो तो लड़कियों का जोर नहीं चलता मेडिकल स्टोर पर.. वरना
सिरदर्द की गोली लेते समय भी बोले भईया, इसमें दूसरा कलर दिखाईए ना
सुंदर लगना हर किसी को पसंद है। हर कोई सुंदर दिखना चाहता है लेकिन सुंदरता का जो मखौल पुरुषों द्वारा उड़ाया जाता है, ऐसा लगता है कि वह स्वयम सुंदर नहीं दिखना चाहता। उक्त लतीफों में स्त्रियों के फैशन का ऐसे मज़ाक बनाया गया है जिसे स्त्रियां शायद ही कभी करती हों। स्त्रियों के अतिशय फैशन का मज़ाक बनाने के लिए यह विचार पुरुषों का जान पड़ता है।
स्त्रियों पर बने जोक्स यह बताते हैं कि हमारा समाज कितना स्त्री द्वेषी है। लतीफों में स्त्रियों की ऐसी छवि गढ़ी जाती है जिससे उनका चारित्रिक हनन किया जा सके। यदि स्त्री पढ़ने में या किसी काम में अव्वल आए तब भी लतीफा बनता है, क्योंकि पितृसत्ता यह मानती है कि अव्वल आना पुरुषों का काम है। लतीफों में स्त्रियों को ऐसे दिखाया जाता है जैसे वो पुरुषों की दुश्मन हों। स्त्रियों के संदर्भ में बने ये लतीफे पूरी तरह पितृसत्ता से ग्रसित जेंडर बायस्ड होते हैं। लैंगिकवादी लतीफों (सेक्सिस्ट जोक्स) में भी महिलाओं को इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है मानो वह मनुष्य न होकर सेक्स मशीन हों। पूरे श्रम का साठ प्रतिशत श्रम महिलाएं करती हैं लेकिन उनके श्रम को नजरअंदाज किया जाता है और उनका मखौल उड़ाया जाता है। लतीफों में महिलाओं को ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे कि शादी के बाद वे सिर्फ शॉपिंग करती हैं,पति के पैसे उड़ाती हैं और पूरे टाईम मेकअप करती हैं। जबकि हकीकत इसके उलट है। खाना बनाना, बच्चे पालना, घर की साफ़-सफ़ाई, देखभाल करना व घर के अन्य काम स्त्रियों के हिस्से ही आता है। शादी के बाद लड़कियों का अपना घर छूट जाता है। शादी के बाद अक्सर पढ़ाई, नौकरी, बाहर आना-जाना, दोस्त सब लड़कियों के छूटते हैं या छुड़वा दिए जाते हैं; लेकिन लतीफो में उन्हीं का मज़ाक बनाया जाता है। हमारा समाज कितना स्त्री द्वेषी है इसका पता अल्पकही या अनकही बातों से होता है - जो लतीफो में अभिव्यक्त होता है।
Between Feminism and Fun(ny)mism:Analyzing Gender in Popular Internet Humor.
[2]Davies, Christie. Jokes and targets.
Between Feminism and Fun(ny)mism:Analyzing Gender in Popular Internet Humor.

राहुल निशांत
शोध अध्येता
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
बहुत सारगर्भित लेख.धन्यवाद.
ReplyDeleteइसी प्रकार से लिखते रहें,शुभकामनाएं